सोमवार, 16 सितंबर 2013

खामोशी

वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है
जमीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है,

मैं क़त्ल तो हो गया तुम्हारी गली में लेकिन
मेरे लहू से तुम्हारी दीवार गल रही है,

मैं जानती हूँ कि खामोशी में ही मस्लहत है
मगर यही मस्लहत मेरे दिल को खल रही है....










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