गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

सुनो तो कुछ कहना चाहती हूँ

सुनो तो
कुछ कहना चाहती हूँ
मैं 16 दिसंबर हूँ
मैं निर्भया हूँ
मैं दामिनी हूँ 
मैं ज्योति हूँ 

मैं बेटी हूँ ,
सुनो तो
कुछ कहना चाहती हूँ
मैं मरना नहीं चाहती थी
मैं मरना नहीं चाहती हूँ
मैं मर के भी जिन्दा हूँ
मैं जिन्दा रहना चाहती हूँ,
सुनो तो
कुछ कहना चाहती हूँ
मम्मी, पापा, भईया
रोना नहीं,
जानती हूँ ..
ये देश चाहे मुझे भूला दे...
आप लोग मुझे भूले नहीं
न ही कभी भूला पायेंगे
मैं आपके साथ हूँ
आपके पास रहना चाहती हूँ,
सुनो तो
कुछ कहना चाहती हूँ
कि क्या मैं कुछ तुम्हारी भी लगती हूँ
के मेरे क्षत विक्षत शरीर के दर्द से
दहल उठी थी जो सारी दिल्ली देखा था
इंडिया गेट पर
मोमबत्तियों का सैलाब देखा था
सर्द फिज़ाओं में आग देखा था,
सुनो तो
कुछ कहना चाहती हूँ
ऐसा क्या हुआ कि वो आग ठंडी हो गई
बलात्कार होते रहे
अस्मिता लुटती रही,
रोज एक निर्भया इस देश में मर रही है
तब तो सीता सुरक्षित रह गई थी
रावनों के वेष में..
क्यों आज भी सीता लूट रही है
राम के देश में,
सुनो तो
कुछ कहना चाहती हूँ ..!!!

(अर्पणा सिंह पराशर)