सोमवार, 6 जुलाई 2015

गांव छोड़ के शहर आये थे

गांव छोड़ के शहर आये थे,
फिक्र वहां भी थी फ़िक्र यहां भी है,
वहां तो सिर्फ 'फसलें' ही खतरे में थीं.
यहां तो पूरी 'नस्लें' ही खतरे में है..!!


मैं “किसी से” बेहतर करुं

मैं “किसी से” बेहतर करुं
क्या फर्क पड़ता है!
मै “किसी का” बेहतर करूं
बहुत फर्क पड़ता है!


छुपे छुपे से रहते हैं सरेआम नहीं हुआ करते

छुपे छुपे से रहते हैं सरेआम नहीं हुआ करते !!

कुछ रिश्ते बस एहसास होते हैं उनके नाम नहीं हुआ करते !!


गर फुर्सत मिले तो समझना मुझे ज़रूर

गर फुर्सत मिले तो समझना मुझे ज़रूर,,
मैं तुम्हारी उलझनों का मुकम्मल इलाज हूँ..!!


बुधवार, 18 फ़रवरी 2015