शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

कौव्वे को कबूतर लिखने लगे






गुरुवार, 23 जुलाई 2015

हर बार ये इल्ज़ाम रह गया

हर बार ये इल्ज़ाम रह गया,
हर काम में कोई काम रह गया..!!

नमाज़ी उठ उठ कर चले गये मस्ज़िदों से,
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया..!!

दिलेरी का हरगिज़ हरगिज़ ये काम नहीं है,
दहशत किसी मज़हब का पैगाम नहीं है ....!

तुम्हारी इबादत, तुम्हारा खुदा, तुम जानो,
हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!!!



वसल का दिन और इतना मुख्तसर

वसल का दिन और इतना मुख्तसर, 
दिन गिने जाते हैं इस दिन के लिए.. !


शनिवार, 18 जुलाई 2015

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहग़ुज़र के हम हैं।

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम कहाँ के हैं, किधर के हम हैं।



ज़ुबानी दाग़ बहुत लोग करते रहते हैं

ज़ुबानी दाग़ बहुत लोग करते रहते हैं,
जुनूँ के काम को कर के दिखाना होता है।

कि तू भी याद नहीं आता ये तो होना था
गए दिनों को सभी को भुलाना होता है।